भारतीय संस्कृति में गुरू का पद सर्वाेच्च

                                                  Ashish rastogi mahmudabad writer
गुरू पूर्णिमा पर विशेष
महमूदाबाद, सीतापुर
इस वर्ष गुरू पूर्णिमा का विशेष पर्व 31 जुलाई को है। यह आपाढ मास की अंतिम पूर्णिमा को सदैव मनाया जाता है यह दिन विशेष रूप से गुरू के प्रति समर्पित है ताकि मनुष्य, गुरू की महिमा से परिचित हो सके। गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते है। महर्षि वशिष्ठ के पौत्र, महर्षि परासर के पुत्र ‘वेद व्यास’ जन्म के कुछ समय बाद ही अपनी  मां से तपस्या के लिये आज्ञा प्राप्त कर तय के लिये बदरिकाश्रम चले गये थे। वेदो का विस्तार करने के कारण ही इनका नाम वेदव्यास पडा। इन्ही ज्ञान के अतुल भण्डार, परम भक्त, विद्वता की पराकाष्ठा वाले महर्षि वेद व्यास के नाम से ही आषाढ शुक्ल पूर्णिमा का नाम व्यास पूर्णिमा पडा। यह सबसे बडी पूर्णिमा मानी गई है। जो व्यक्ति को परमात्मा के वास्तविक ज्ञान का साक्षात्कार करने की ओर अग्रसर करती है अतः इसे गुरू पूर्णिमा भी कहा जाता है। गुरू की महिमा  अनन्त है। उसका थोडा या सानिध्य ही जीवात्मा को सद्गति प्रदान करता है। इसी कारण सभी स्वीकारते है कि गुरू भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। गुरू ही एकमात्र ऐसे नाविक है। जो इस संसार सागर से जीवात्मा को पार लगा सकते है। गुरूदेव की भावमयी मूर्ति ध्यान का मूल है। उनके चरण कमल पूजा के मूल है। उनके द्वारा कहे गये वाक्य मूल मंत्र है। उनकी कृपा ही मोक्ष का मूल है। हमारी भारतीय संस्कृति में गुुरू का पद सर्वाेच्च माना गया है।  गुरू को ब्रम्हा, विष्णु और महेश के तुल्य कहा गया है गुरू शब्द दो वर्ण है इसमे प्रथम वर्ण गु और द्वितीय वर्ष रू है। गुरू शब्द का आशय अंधकार तथा रू शब्द का आशय प्रकाश है। अंधकार का तात्पर्य अज्ञानता से और प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है अर्थात जो मनुष्य के नष्ट करने वाला है अर्थात् वहीं गुरू है। आदिकाल से ही भारत में गुरू शिष्य परम्परा चली आ रही है। गुरू शिष्य परम्परा ही आदिकाल से ज्ञान सम्पदा का संरक्षण कर उसे श्रुति के रूप में क्रमबद्ध करती आई है गुरू शिष्य के परस्पर महान सम्बद्धों एवं समर्पण भाव द्वारा अपने अहंकार को गलाकर ज्ञान प्राप्ति की महत्ता का विस्तार शास्त्रों में स्थान स्थान पर मिलता है। गुरू को मानवीय चेतना का मर्मश माना गया है वह शिष्य की चेतना में उलट फेर करने में समर्थ है। गुरू शिष्य सम्बद्धों का अध्यात्मिक स्तर उच्च स्तरीय आदान प्रदान का होता है शिष्य अपनी सत्ता के अहम को गुरू चरणों में समर्पित करता है। गुरू अपनी कृपा द्वारा उसे ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बनाता है तथा जीवन मुक्त कर देता है गुरू शिष्य परम्परा ने ही नर रत्न इस  भारत भूमि को दिये है जिनमें हम सब स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं।  आज गुरू शिष्य परम्परा को जीवित रखने की आवश्यकता है। गुरू शिष्य में भेदभाव को खत्म करके उनमें समानता के भाव देखने  की परम आवश्यकता है।  इस गुरू पूर्णिमा के अवसर पर सभी शिष्यों को संकल्प लेना चाहिए कि गुरू  की सेवा करके उनको सामथ्र्य प्रदान करें  तथा गुरू के द्वारा प्रदान किये गये कार्याें को पूरा करेंगें। गुरू ही जीवन में प्रकाश की किरण पैदा करता है गुरू माता पिता से सर्वश्रेष्ठ है।

Share this

Related Posts

Previous
Next Post »